स्वयं जीयो और दूसरों को जीने दो , सबको अपने समान समझे । - WISDOM365.CO.IN

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स्वयं जीयो और दूसरों को जीने दो , सबको अपने समान समझे ।


स्वयं जीयो और दूसरों को जीने दो , सबको अपने समान समझे ।

स्वयं जीयो और दूसरों को जीने दो , सबको अपने समान समझे ।

स्वयं जीयो और दूसरों को जीने दो , सबको अपने समान समझे ।

जैन धर्म का सबसे प्रमुख पर्व महावीर जयंती धूम - धाम से मनाया जाता है . महावीर जयंती का पर्व चामी महावीर के जन्मदिन चैत्र शुक्ल त्रयोदशी में मनाया जाता है . इस बार महावीर जयंती 17 प्रैल को मनाई जा रही है . स्वामी महावीर जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर थे , इस पर्व को लोग एक त्सव की तरह मनाते हैं . प्रस्तुत है भगवान महावीर जयंती पर विशेष लेख .



वर्धमान ' भगवान महावीर का एक अन्य प्रसिद्ध नाम है , वह अद्भुत क्रांतिकारी थे . उनकी क्रांति सर्वोन्मुखी थी , अध्यात्म , दर्शन , समाज व्यवस्था , यहां तक कि भाषा के क्षेत्र में भी उनकी देन बहुमूल्य है . उन्होंने सद्गुणों की अवगणना करने वाले जन्मजात जातिवाद के विरोध में शंखनाद कर गुण , कर्म के आधार पर जाति व्यवस्था का प्रतिपादन कर जन चेतना को जागृत किया . नारियों की प्रतिष्ठा को भूले हुए भारत को साध्वीसंघ बना कर प्रतिष्ठा प्रदान की , वर्तमान समय में भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित अनेकांत अपिग्रह एवं अहिंसा जैसे सिद्धांत विश्व समस्या समाधान के लिए निश्चयी सर्वोदयी एवं साम्यवादी आदर्श सिद्धांत , व्यक्ति , समाज , राष्ट्र एवं विश्व का नव निर्माण कर सकते हैं ।


अहिंसा परमोधर्म का उद्घोष करते हुए भगवान महावीर ने अपने जीवन को आत्मकल्याण के मार्ग पर कठिन तपपूर्वक साधना करते हुए तीर्थंकरत्व को प्राप्त किया . उन्होंने एक ऐसा जीवन दर्शन प्रस्तुत किया जिसे हजारों वर्षों बाद भी उनके सिद्धांतों को अपनाते हुए अपने राष्ट्र एवं अपने जीवन को स्वर्णिम बनाने का प्रयास हम सभी कर रहे हैं . जिस दिन हमने भगवान महावीर के अहिंसा , अनेकांतवाद , स्यादवाद , अपरिग्रह जैसे सिद्धांतों को गृहस्थ जीवन का निर्वाह करते हुए जीवन के प्रति सजग रह कर अपने आचार - विचार में अपना लिया , उस दिन निश्चय ही सोने की चिड़िया कहलाने वाला यह देश विश्व शांति स्थापित करके  अनूठा भारतवर्ष बन जाएगा .


सत्य मार्ग बताने वाले तीर्थंकरों , संतों और युग पुरुषों की आवश्यकता भी उसी समय अनुभव की जाती है , जब संसार में न केवल अधर्म बढ़ता है , अपितु अधर्म भी धर्म का आवरण  पहन कर जनता को भ्रम बंधन में डाल देता  है . पाप जब सर्वत्र अपनी शान जमा लेता है , मानवता के सिंहासन पर दानवता जब  अपना आधिपत्य स्थापित कर लेती है , संसार में कोई न कोई धर्मप्राण , युगपुरुष सम्यक धर्म एवं धर्मात्माओं की सुरक्षा के  लिए जन्म धारण करते हैं , उसी समय प्रकृति ऐसे युगसृष्टा पुत्र को जन्म देती है , जो संसार का उद्धार करते हैं और मानव जगत के हृदयों में अहिंसा , सत्य का आध्यात्मिक प्रकाश करते हैं . प्रकृति का यह नियम कभी भंग नहीं होता अपितु इसका अनादिकालीन चक्र सदा चलता रहता है . भगवान महावीर ने बाहरी जगत में किसी भौतिक तीर्थ की स्थापना नहीं की , बल्कि मुमुक्षुओं के हृदय में भाव तीर्थों की स्थापना की , सबको तरने का घाट दिखाया ,भगवान् महावीर के अनमोल वचन सभी मनुष्य अपने स्वयं के दोष की वजह से  दुखी होते हैं , और वे खुद अपनी गलती सुधार कर प्रसन्न हो सकते हैं . आत्मा अकेले आती है । अकेले चली जाती है , न कोई उसका साथ देता है न कोई उसका मित्र बनता है .

अहिंसा ध्वजारोही भगवान महावीर 



2610 वर्ष पहले भगवान महावीर के जन्म के समय इस देश की परिस्थितियां बड़ी जटिल थीं , देश में धर्म के नाम पर हिंसा का जोर था , महावीर  ने अपरिग्रह , अहिंसा और स्वावलम्बन पर बल दिया । भगवान महावीर ने कहा : ' जीयो और जीने दो . ' उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत जितने गंभीर गूढ़ व अनुकरणीय हैं , उनका जीवन उतना ही सादा , सरल व स्पष्ट है . उसमें विविधताओं के लिए स्थान नहीं । उनकी जीवन गाथा मात्र इतनी ही है कि वे आरम्भ के 30 वर्षों में वैभव और विलास के बीच जल से भिन्न कमलवत रहे . इन 12 वर्षों में उन्होंने मोह , राग , द्वेष की भावनाओं पर विजय पाई और इस प्रकार ज्ञान की प्राप्ति हुई . अंतिम 30 वर्षों में प्राणी मात्र के कल्याण के लिए सर्वोदय तीर्थ का प्रवर्तन , प्रचार व प्रसार करते रहे . जैन धर्म कोई मत या सम्प्रदाय नहीं , वह तो वस्तु का स्वरूप है , वह एक तथ्य है , सत्य है , परम सत्य है और उस परम सत्य को प्राप्त कर नर से नारायण बना । जा सकता है . प्रत्येक महापुरुष अपने युग में चल रही । दीर्घकालीन रूढ़िवादी परम्पराओं पर चिंतन कर उसमें सुधार लाने का प्रयत्न करता  है . भगवान महावीर ने भी अपने युग की  रुढ़िग्रस्त परम्पराओं का निराकरण कर नई चिंतन धारा को प्रवाहित किया .


महावीर के - युग में आश्रमों में केवल तथाकथित कुलीन व्यक्तियों को ही दीक्षित किया जाता था . भगवान महावीर ने इस परम्परा को महत्वहीन जानकर इसका परित्याग कर दिया . उनका मार्ग ‘ जिन मार्ग ' था , जिसका अर्थ  था - स्वयं पर विजय पाना , यह कोई सम्प्रदाय नहीं था अपितु साधना का एक प्रशस्त मोक्षमार्ग था . उन्होंने अपने इस मिशन में सभी जातियों को सम्मिलित किया , समाज से प्रताड़ित , बहिष्कृत , अवहेलित और अस्पृश्य समझे जाने वाले लोगों को अपने संघ में शरण दी और उन्हें धर्माराधन का अधिकार दिया , जाति और कुल के अभिमान को मिथ्या बताया , भिक्षु की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा - ' जिसे न जाति का , न रूप का , न लाभ का , न ज्ञान का मद ( अभिमान ) है , | वही भिक्षु है . ' भगवान महावीर के संघ में चतुर्वर्ण का  अद्भुत संगम था . उनके संघ के चारों वर्षों  के लोग साधना करते थे . उनका कहना  था , " मैं किसी को जन्म और जाति से  महान नहीं मानता संयम - साधना , त्याग से महान मानता हूँ ,  भगवान महावीर का अपने युग की दशा को देख कर उसे नई दिशा देने का एक प्रयत्न था जिसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिली . युद्धों की विभीषिका और धार्मिक असहिष्णुता के इस दौर में महावीर के  सिद्धांत आज भी समीचीन और प्रासंगिक हैं .
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स्वयं जीयो और दूसरों को जीने दो , सबको अपने समान समझे । स्वयं जीयो और दूसरों को जीने दो , सबको अपने समान समझे । Reviewed by Daily Wisdom on April 17, 2019 Rating: 5
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